4 Mar 2016

मातंगी मंत्र साधना.

वर्तमान युग में, मानव जीवन के प्रारंभिक पड़ाव से अंतिम पड़ाव तक भौतिक आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है । व्यक्ति जब तक भौतिक जीवन का पूर्णता से निर्वाह नहीं कर लेता है, तब तक उसके मन में आसक्ति का भाव रहता ही है और जब इन इच्छाओ की पूर्ति होगी,तभी वह आध्यात्मिकता के क्षेत्र में उन्नति कर सकता है । मातंगी महाविद्या साधना एक ऐसी साधना है जिससे आप भौतिक जीवन को भोगते हुए आध्यात्म की उँचाइयो को छु सकते है । मातंगी महाविद्या साधना से साधक को पूर्ण गृहस्थ सुख ,शत्रुओ का नाश, भोग विलास,आपार सम्पदा,वाक सिद्धि, कुंडली जागरण ,आपार सिद्धियां, काल ज्ञान ,इष्ट दर्शन आदि प्राप्त होते ही है ।

इसीलिए ऋषियों ने कहा है -

" मातंगी मेवत्वं पूर्ण मातंगी पुर्णतः उच्यते "

इससे यह स्पष्ट होता है की मातंगी साधना पूर्णता की साधना है । जिसने माँ मातंगी को सिद्ध कर लिया फिर उसके जीवन में कुछ अन्य सिद्ध करना शेष नहीं रह जाता । माँ मातंगी आदि सरस्वती है,जिसपे माँ मातंगी की कृपा होती है उसे स्वतः ही सम्पूर्ण वेदों, पुरानो, उपनिषदों आदि का ज्ञान हो जाता है ,उसकी वाणी में दिव्यता आ जाती है ,फिर साधक को मंत्र एवं साधना याद करने की जरुरत नहीं रहती ,उसके मुख से स्वतः ही धाराप्रवाह मंत्र उच्चारण होने लगता है ।

जब वो बोलता है तो हजारो लाखो की भीड़ मंत्र मुग्ध सी उसके मुख से उच्चारित वाणी को सुनती रहती है । साधक की ख्याति संपूर्ण ब्रह्माण्ड में फैल जाती है ।कोई भी उससे शास्त्रार्थ में विजयी नहीं हो सकता,वह जहाँ भी जाता है विजय प्राप्त करता ही है । मातंगी साधना से वाक सिद्धि की प्राप्ति होते है, प्रकृति साधक से सामने हाँथ जोड़े खडी रहती है, साधक जो बोलता है वो सत्य होता ही है । माँ मातंगी साधक को वो विवेक प्रदान करती है की फिर साधक पर कुबुद्धि हावी नहीं होती,उसे दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है और ब्रह्माण्ड के समस्त रहस्य साधक के सामने प्रत्यक्ष होते ही है ।

माँ मातंगी को उच्छिष्ट चाण्डालिनी भी कहते है,इस रूप में माँ साधक के समस्त शत्रुओ एवं विघ्नों का नाश करती है,फिर साधक के जीवन में ग्रह या अन्य बाधा का कोई असर नहीं होता । जिसे संसार में सब ठुकरा देते है,जिसे संसार में कही पर भी आसरा नहीं मिलता उसे माँ उच्छिष्ट चाण्डालिनी अपनाती है,और साधक को वो शक्ति प्रदान करती है जिससे ब्रह्माण्ड की समस्त सम्पदा साधक के सामने तुच्छ सी नजर आती है ।
महर्षि विश्वमित्र ने यहाँ तक कहा है की " मातंगी साधना में बाकि नव महाविद्याओ का समावेश स्वतः ही हो गया है " । अतः आप भी माँ मातंगी की साधना को करें जिससे आप जीवन में पूर्ण बन सके ।

माँ मातंगी जी का साधना जो साधक कर लेता है वह तो गर्व से कह सकता है,मेरा यह अध्यात्मिक जिवन व्यर्थ नही गया । अगर मैंने स्वयं कभी मातंगी साधना नही की होती तो मुझे सबसे ज्यादा दुख आनेवाले कई वर्षो तक तकलीफ देता परंतु अध्यात्मिक जिवन के प्रथम पडाव मे ही मैने मातंगी साधना को इसी विधि-विधान से सम्पन्न कर लिया जो आज आप सभी के लिये दे रहा हूं।

साधना विधि:-साधना सोमवार के दिन,पच्छिम दिशा मे मुख करके करना है। पोस्ट मे मातंगी यंत्र का फोटो दे रहा हू,वैसा ही यंत्र भोजपत्र पर कुम्कुम के स्याही से बनाये। वस्त्र आसन लाल रंग का हो,साधना रात्रि मे 9 बजे के बाद करे। नित्य 51 माला जाप 21 दिनो तक करना चाहिए। देवि मातंगी वशीकरण की महाविद्या मानी जाती है,इसी मंत्र साधना से वशीकरण क्रिया भी सम्भव है। 21 वे दिन कम से कम घी की 108 आहूति हवन मे अर्पित करे। इस तरहा से साधना पुर्ण होती है।22 वे दिन भोजपत्र पर बनाये हुए यंत्र को चांदि के तावीज मे डालकर पहेन ले,यह एक दिव्य कवच माना जाता है।अक्षय तृतीया के दिन ''मातंगी जयंती'' होती है और वैशाख पूर्णिमा ''मातंगी सिद्धि दिवस'' होता है. ,इन १२ दिनों मे आप चाहे जितना मंत्र जाप कर सकते है ।



विनियोग:

अस्य मंत्रस्य दक्षिणामूर्ति ऋषि विराट् छन्दः मातंगी देवता ह्रीं बीजं हूं शक्तिः क्लीं कीलकं सर्वाभीष्ट सिद्धये जपे विनियोगः ।


ऋष्यादिन्यास :

ॐ दक्षिणामूर्ति ऋषये नमः शिरसी ।१।
विराट् छन्दसे नमः मुखे ।२।
मातंगी देवतायै नमः हृदि ।३।
ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये ।४।
हूं शक्तये नमः पादयोः ।५ ।
क्लीं कीलकाय नमः नाभौ ।६।
विनियोगाय नमः सर्वांगे ।७।


करन्यासः

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।१।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।२।
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः।३।
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः।४।
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।५।
ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।६।


हृदयादिन्यास:

ॐ ह्रां हृदयाय नमः ।१।
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।२।
ॐ ह्रूं शिखायै वषट् ।३।
ॐ ह्रैं कवचाय हूं ।४।
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ।५।
ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ।६।


ध्यानः

श्यामांगी शशिशेखरां त्रिनयनां वेदैः करैर्विभ्रतीं, पाशं खेटमथांकुशं दृढमसिं नाशाय भक्तद्विषाम् ।
रत्नालंकरणप्रभोज्जवलतनुं भास्वत्किरीटां शुभां
मातंगी मनसा स्मरामि सदयां सर्वाथसिद्धिप्रदाम् ।।



मंत्रः

।। ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा ।।

(om hreem kleem hoom matangyei phat swaahaa)


ये मंत्र साधना अत्यंत तीव्र मंत्र है । मातंगी महाविद्या साधना प्रयोग सर्वश्रेष्ठ साधना है जो साधक के जिवन को भाग्यवान बना देती है। मंत्र जाप के बाद अवश्य ही कवच का एक पाठ करे।




मातंगी कवच

।। श्रीदेव्युवाच ।।

साधु-साधु महादेव ! कथयस्व सुरेश्वर !
मातंगी-कवचं दिव्यं, सर्व-सिद्धि-करं नृणाम् ।।

श्री-देवी ने कहा – हे महादेव ! हे सुरेश्वर ! मनुष्यों को सर्व-सिद्धि-प्रद दिव्य मातंगी-कवच अति उत्तम है, उस कवच को मुझसे कहिए ।


।। श्री ईश्वर उवाच ।।

श्रृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि, मातंगी-कवचं शुभं ।
गोपनीयं महा-देवि ! मौनी जापं समाचरेत् ।।

ईश्वर ने कहा – हे देवि ! उत्तम मातंगी-कवच कहता हूँ, सुनो । हे महा-देवि ! इस कवच को गुप्त रखना, मौनी होकर जप करना ।


विनियोगः-

ॐ अस्य श्रीमातंगी-कवचस्य श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषिः । विराट् छन्दः । श्रीमातंगी देवता । चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगः ।


ऋष्यादि-न्यासः-

श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषये नमः शिरसि ।
विराट् छन्दसे नमः मुखे ।
श्रीमातंगी देवतायै नमः हृदि ।
चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।



।। मूल कवच-स्तोत्र ।।

ॐ शिरो मातंगिनी पातु, भुवनेशी तु चक्षुषी ।
तोडला कर्ण-युगलं, त्रिपुरा वदनं मम ।।

पातु कण्ठे महा-माया, हृदि माहेश्वरी तथा ।
त्रि-पुष्पा पार्श्वयोः पातु, गुदे कामेश्वरी मम ।।

ऊरु-द्वये तथा चण्डी, जंघयोश्च हर-प्रिया ।
महा-माया माद-युग्मे, सर्वांगेषु कुलेश्वरी ।।

अंग प्रत्यंगकं चैव, सदा रक्षतु वैष्णवी ।
ब्रह्म-रन्घ्रे सदा रक्षेन्, मातंगी नाम-संस्थिता ।।

रक्षेन्नित्यं ललाटे सा, महा-पिशाचिनीति च ।
नेत्रयोः सुमुखी रक्षेत्, देवी रक्षतु नासिकाम् ।।

महा-पिशाचिनी पायान्मुखे रक्षतु सर्वदा ।
लज्जा रक्षतु मां दन्तान्, चोष्ठौ सम्मार्जनी-करा ।।

चिबुके कण्ठ-देशे च, ठ-कार-त्रितयं पुनः ।
स-विसर्ग महा-देवि ! हृदयं पातु सर्वदा ।।

नाभि रक्षतु मां लोला, कालिकाऽवत् लोचने ।
उदरे पातु चामुण्डा, लिंगे कात्यायनी तथा ।।

उग्र-तारा गुदे पातु, पादौ रक्षतु चाम्बिका ।
भुजौ रक्षतु शर्वाणी, हृदयं चण्ड-भूषणा ।।

जिह्वायां मातृका रक्षेत्, पूर्वे रक्षतु पुष्टिका ।
विजया दक्षिणे पातु, मेधा रक्षतु वारुणे ।।

नैर्ऋत्यां सु-दया रक्षेत्, वायव्यां पातु लक्ष्मणा ।
ऐशान्यां रक्षेन्मां देवी, मातंगी शुभकारिणी ।।

रक्षेत् सुरेशी चाग्नेये, बगला पातु चोत्तरे ।
ऊर्घ्वं पातु महा-देवि ! देवानां हित-कारिणी ।।

पाताले पातु मां नित्यं, वशिनी विश्व-रुपिणी ।
प्रणवं च ततो माया, काम-वीजं च कूर्चकं ।।

मातंगिनी ङे-युताऽस्त्रं, वह्नि-जायाऽवधिर्पुनः ।
सार्द्धेकादश-वर्णा सा, सर्वत्र पातु मां सदा ।।


हिंदी अर्थ:

मातंगिनी देवी मेरे मस्तक की रक्षा करे, भुवनेश्वरी दो नेत्रों की, तोतला देवी दो कर्णों की, त्रिपुरा देवी मेरे बदन-मण्डल की, महा-माया मेरे कण्ठ की, माहेश्वरी मेरे हृदय की, त्रिपुरा दोनों पार्श्वों की और कामेश्वरी मेरे गुह्य-देश की रक्षा करे ।

चण्डी दोनों ऊरु की, रति-प्रिया जंघा की, महा-माया दोनों चरणों की और कुलेश्वरी मेरे सर्वांग की रक्षा करे । वैष्णवी सतत मेरे अंग-प्रत्यंग की रक्षा करे, मातंगी ब्रह्म-रन्घ्र में अवस्थान करके मेरी रक्षा करे । महा-पिशाचिनी बराबर मेरे ललाट की रक्षा करे, सुमुखी चक्षु की रक्षा करे, देवी नासिका की रक्षा करे ।

महा-पिशाचिनी वदन के पश्चाद्-भाग की रक्षा करे, लज्जा मेरे दन्त की और सम्मार्जनी-हस्ता मेरे दो ओष्ठों की रक्षा करे ।

हे महा-देवि ! तीन ‘ठं’ मेरे चिबुक और कण्ठ की और तीन ‘ठं’ सदा मेरे हृदय-देश की रक्षा करे । लीला माँ मेरे नाभि-देश की रक्षा करे, कालिका चक्षु की रक्षा करे, चामुण्डा जठर की रक्षा करे और कात्यायनी लिंग की रक्षा करे । उग्र-तारा मेरे गुह्य की, अम्बिका मेरे पद-द्वय की, शर्वाणी मेरे दोनों बाहुओं की और चण्ड-भूषण मेरे हृदय-देश की रक्षा करे । मातृका रसना की रक्षा करे, पुष्टिका पूर्व-दिशा की तरफ, विजया दक्षिण-दिशा कीतरफ और मेधा पश्चिम दिशा की तरफ मेरी रक्षा करे ।
श्रद्धा नैऋत्य-कोण की तरफ, लक्ष्मणा वायु-कोण की तरफ, शुभ-कारिणी मातंगी देवी ईशान-कोण की तरफ, सुवेशा अग्नि-कोण की तरफ, बाला उत्तर दिक् की तरफ और देव-वृन्द की हित-कारिणी महा-देवी ऊर्ध्व-दिक् की तरफ रक्षा करे । विश्व-रुपिणि वशिनी सर्वदा पाताल में मेरी रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंगिन्यै फट् स्वाहा” – यह सार्द्धेकादश-वर्ण-मन्त्रमयी मातंगी सतत सकल स्थानों में मेरी रक्षा करे ।


।। फल-श्रुति ।।

इति ते कथितं देवि ! गुह्यात् गुह्य-तरं परमं ।
त्रैलोक्य-मंगलं नाम, कवचं देव-दुर्लभम् ।।

यः इदं प्रपठेत् नित्यं, जायते सम्पदालयं ।
परमैश्वर्यमतुलं, प्राप्नुयान्नात्र संशयः ।।

गुरुमभ्यर्च्य विधि-वत्, कवचं प्रपठेद् यदि ।
ऐश्वर्यं सु-कवित्वं च, वाक्-सिद्धिं लभते ध्रुवम् ।।

नित्यं तस्य तु मातंगी, महिला मंगलं चरेत् ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च, ये देवा सुर-सत्तमाः ।।

ब्रह्म-राक्षस-वेतालाः, ग्रहाद्या भूत-जातयः ।
तं दृष्ट्वा साधकं देवि ! लज्जा-युक्ता भवन्ति ते ।।

कवचं धारयेद् यस्तु, सर्वां सिद्धि लभेद् ध्रुवं ।
राजानोऽपि च दासत्वं, षट्-कर्माणि च साधयेत् ।।

सिद्धो भवति सर्वत्र, किमन्यैर्बहु-भाषितैः ।
इदं कवचमज्ञात्वा, मातंगीं यो भजेन्नरः ।।

झल्पायुर्निधनो मूर्खो, भवत्येव न संशयः ।
गुरौ भक्तिः सदा कार्या, कवचे च दृढा मतिः ।।

तस्मै मातंगिनी देवी, सर्व-सिद्धिं प्रयच्छति ।।


हिंदी अर्थ:

हे देवि ! तुमसे मैंने यह “त्रैलोक्य-मोहन” नाम का अति गुह्य देव दुर्लभ कवच कहा है । जो नित्य इसका पाठ करता है, वह सम्पत्ति का आधार होता है और अतुल परमैश्वर्य प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है । यथा-विधि गुरु-पूजा करके उक्त कवच का पाठ करने से ऐश्वर्य, सु-कवित्व और वाक्-सिद्धि निश्चय ही प्राप्त की जा सकती है । मातंगी उसे नित्य नारी-संग दिलाती है । हे देवि ! ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, दूसरे प्रधान देव-वृन्द, ब्रह्म-राक्षस, वैताल, ग्रह आदि भूत-गण उस साधक को देखकर लज्जित होते हैं ।

जो व्यक्ति इस कवच को धारण करता है, वह सर्व-सिद्धियाँ लाभ करता है । नृपति-गण उसका दासत्व करते हैं । वह षट्-कर्म साधन कर सकता है । अधिक क्या, वह सर्वत्र सिद्ध होता है । इस कवच को न जानकर, जो मातंगी की पूजा करता है, वह अल्पायु, धन-हीन और मूर्ख होता है । गुरु-भक्ति सर्वदा परमावश्यक है । इस कवच पर भी दृढ़ मति अर्थात् पूर्ण विश्वास रखना परम कर्तव्य है । फिर मातंगी देवी सर्व-सिद्धियाँ प्रदान करती है




आदेश.....