27 Aug 2017

आसुरी दुर्गा मंत्र साधना (नवरात्रि विशेष)



पुरातन काल में दुर्गम नामक दैत्य हुआ। उसने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न कर सभी वेदों को अपने वश में कर लिया जिससे देवताओं का बल क्षीण हो गया। तब दुर्गम ने देवताओं को हराकर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया। तब देवताओं को देवी भगवती का स्मरण हुआ। देवताओं ने शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ तथा चण्ड-मुण्ड का वध करने वाली शक्ति का आह्वान किया।
देवताओं के आह्वान पर देवी प्रकट हुईं। उन्होंने देवताओं से उन्हें बुलाने का कारण पूछा। सभी देवताओं ने एक स्वर में बताया कि दुर्गम नामक दैत्य ने सभी वेद तथा स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया है तथा हमें अनेक यातनाएं दी हैं। आप उसका वध कर दीजिए। देवताओं की बात सुनकर देवी ने उन्हें दुर्गम का वध करने का आश्वासन दिया।

यह बात जब दैत्यों का राजा दुर्गम को पता चली तो उसने देवताओं पर पुन: आक्रमण कर दिया। तब माता भगवती ने देवताओं की रक्षा की तथा दुर्गम की सेना का संहार कर दिया। सेना का संहार होते देख दुर्गम स्वयं युद्ध करने आया। तब माता भगवती ने काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला आदि कई सहायक शक्तियों का आह्वान कर उन्हें भी युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। भयंकर युद्ध में भगवती ने दुर्गम का वध कर दिया। दुर्गम नामक दैत्य का वध करने के कारण भी भगवती का नाम दुर्गा के नाम से भी विख्यात हुआ।

असुर देवताओं पर अपने तपस्या के माध्यम से विजयी रहे है,जैसे तारकासुर को हराना इतना आसान नही था । स्वयं त्रिदेव और त्रिदेवी भी उसको हराने में सक्षम नही थे क्युके उसने ऐसा वरदान प्राप्त किया था जो किसी भी असुर को प्राप्त नही हो सका । हम सब के अंदर एक असुर विद्यमान है जिसका हम जिक्र नही कर सकते है । किसीको मोह है तो कोई माया के पीछे पागल है,कुछ तो देवताओं को भी नही मानते है और कुछ लोग स्वयं को भगवान मान बैठे हुए है,बहोत सारे लोगो मे अहंकार भी है और साथ मे उन्होंने यह मान लिया है के उनके जैसा श्रेष्ठ इस दुनिया मे पैदा नही हुआ ।

अब बस भी करो,बहोत हो गया । अब आनेवाली नवरात्रि में हमे माँ दुर्गा के स्वरूप "आसुरी दुर्गा" जी के साधना को संपन्न करना ही है,अब इस बार इस जीवन को श्रेष्ठ जीवन बनाना ही है । इस बार भागो मत, साधना क्षेत्र में आप सभी का स्वागत है । आप इस साधना को स्वयं करो और अपने जीवन को खुशहाल बनाओ,आपका सभी कामना इसी साधना से पूर्ण होगा "यह मुझे विश्वास है" ।

मेरे प्यारे साधक मित्रो,मैं कोई आपका गुरु नही हु और नाही कोई आपका सगा संबंधि हु परंतु आप के समस्याओ को सुनकर मुझे भी दुख होता है और अब आपको यह साधना सम्पन्न करके सभी समस्याओं से मुक्त होना ही है । इस नवरात्रि पर मैं आप सभी को वचन देता हूं के आपके समस्या निवारण हेतु यह साधना मैं भी करूँगा सिर्फ फर्क इतना ही है के आपको नित्य इस साधना में स्वयं के कल्याण हेतु 11 माला जाप करना है और मैं 21 माला रात्री में मंत्र जाप करूँगा । साथ मे ये भी संकल्प लेने वाला हु "हे माँ जगतजननी जो भी व्यक्ति यह साधना कर रहा हो,उसका अवश्य ही आपकी कृपा से मनोकामना पूर्ती हो" ।

जो लोग मुझे गलत समझते हो वो समझते रहे क्युके वही उनके लिए एक बचा हुआ कार्य है और शायद उनका लगता होगा के उन्हें मेरा विरोध करने से कुछ प्राप्त हो जाये । आसुरी दुर्गा तो प्रत्यांगिरा पर भी भारी है,मैने महसुस किया है "माँ आसुरी दुर्गा तो इस संसार के समस्त कामनाओ को पूर्ण कर सकती है,सिर्फ कामना अच्छा होना जरूरी है" । इस नवरात्रि के पावन अवसर पर असुरी शक्तियो का आपके जीवन मे नाश हो क्योंकि यह असुरी शक्तियां सभी के जीवन मे बाधाये बनकर व्यक्ति के जीवन का नाश करती है । दुर्भाग्य को समाप्त करने का यह अवसर आप ना गवाये,सिर्फ मंत्र साधना करे तो अवश्य ही आपको पाखंडी बाबाओं के जाल में फसने कि आवश्यकता नही पड़ेगी ।

अब अर्थववेदोक्त आसुरी विद्या के प्रयोगों की श्रेष्ठतम विधि लिख रहा हूँ,जिसे आप मंत्रमहोदधी में पढ़ सकते है ।






साधना विधान:-

सर्वप्रथम माँ भगवती दुर्गा जी का चित्र या विग्रह लाल रंग के कपड़े को किसी भी प्रकार के बाजोट पर बिछाकर स्थापित करे,साधना काल मे घी का दीपक जलाएं और सुगंधित धूपबत्ती का प्रयोग करे । मातारानी को हो सके तो गुडहल के पुष्प या जो भी आप चढ़ाने में सक्षम हो वह पुष्प चढ़ाये । साधक को लाल रंग की धोती और लाल रंग के आसन का ही प्रयोग करना है,साधिकाएं लाल रंग का सलवार/साडी पहन सकती है । मंत्र जाप के समय साधक का मुख उत्तर दिशा में होना जरूरी है और इस साधना में मंत्र जाप हेतु लाल मूंगा/लाल हकीक/लाल चंदन माला का प्रयोग करना है । साधना समाप्ति के बाद माला को याद से जल में प्रवाहित कर दिया जाना चाहिए । साधना रात्रि में सूर्यास्त के एक घंटे के बाद शुरू करे और हो सके तो नवरात्रि के 9 दिनों तक 11 माला मंत्र जाप करे ।


अब एक चम्मच जल दाहिने हाथ मे लेकर मंत्र बोलिये और जल को जमीन पर छोड़ दे-

विनियोग विधि -

।। ॐ अस्य आसुरीमन्त्रस्य अंगिरा ऋषिर्विराट् छन्दः आसुरीदुर्गादेवता ॐ बीजं स्वाहा शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्ध्यर्थ जपे विनियोगः ।।



अब बायें हाथ मे जल लेकर अपने दाहिने हाथ की पाँचो उंगलियों को जल में डुबोकर बताए गए शरीर के स्थान पर स्पर्श करें-


ऋष्यादिन्यास -

ॐ अङ्गिरसे ऋषये नमः, शिरसि,
ॐ विराट् छन्दसे नमः मुखे,
ॐ आसुरीदुर्गादेवतायै नमः हृदि,
ॐ ॐ बीजाय नमः गुह्ये
ॐ स्वाहा शक्तये नमः पादयोः ।।



अब दाहिने हाथ से मंत्रो में कहे गए संबंधित शरीर के स्थान पर स्पर्श करें -

षड्ङन्यास -

ॐ कटुके कटुकपत्रे हुं फट् स्वाहा हृदाय नमः,
सुभगे आसुरि हुं फट् स्वाहा शिरसे स्वाहा,
रक्तेरक्तवाससे हुं फट् स्वाहा शिखायै वषट्,
अथर्वणस्य दुहिते हुं फट् स्वाहा कवचाय हुम्,
अघोरे अघोरकर्मकारिके हुं फट् स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट्,
अमुकस्यं गति यावन्मेवशमायाति हुँ फट् स्वाहा, अस्त्राय फट् ॥



अब दोनो हाथ जोडकर अथर्वापुत्री भगवती आसुरी दुर्गा का ध्यान करे-

।। " जिनके शरीर की आभा शरत्कालीन चन्द्रमा के समान शुभ है, अपने कमल सदृश हाथों में जिन्होंने क्रमशः वर, अभय, शूल एवं अंकुश धारण किया है ।
ऐसी कमलासन पर विराजमान, आभूषणों एवं वस्त्रों से अलंकृत, सर्प का यज्ञोपवीत धारण करने वाली अथर्वा की पुत्री भगवती आसुरी दुर्गा मुझे प्रसन्न रखें" ।।




आसुरी दुर्गा मंत्र:-

।। ॐ कटुके कटुकपत्रे सुभगे आसुरिरक्ते रक्तवाससे अथर्वणस्य दुहिते अघौरे अघोरकर्मकारिके अमुकस्य गतिं दह दह उपविष्टस्य गुदं दह दह सुप्तस्य मनो दह दह प्रबुद्धस्य हृदयं दह दह हन हन पच पच तावद्दह तावत्पच यावन् मे वशमायाति हुं फट् स्वाहा  ।।




जिन साधक मित्रो को संस्कृत पढने में कठिनाई हो वह साधक विनियोग करे फिर ध्यान करे और मंत्र जाप शुरू करे,न्यास जिनसे करना संभव हो वही करे । मंत्रमहोदधी में जिस प्रकार से आसुरी दुर्गा मंत्र के काम्य प्रयोग दिए हुए है वह यहां प्रस्तुत किये जा रहे है-


इस मन्त्र का दश हजार जप करना चाहिए । तदनन्तर घी मिश्रित राई से दशांश होम करने पर यह मन्त्र सिद्ध हो जाता है । (जयादि शक्ति युक्त पीठ पर दुर्गा की एवं दिशाओं में सायुध शशक्तिक इन्द्रादि की पूजा करनी चाहिए) ॥१३३॥

अब काम्य प्रयोग का विधान कहते हैं - राई के पञ्चाङ्गो (जड शाखा पत्र पुष्प एवं फलों) को लेकर साधक मूलमन्त्र से उसे १०० बार अभिमन्त्रित करे, तदनन्तर उससे स्वयं को धूपित करे तो जो व्यक्ति उसे सूँघता है वही वश में हो जाता है । मधु युक्त राई की उक्त मन्त्र से एक हजार आहुति देकर साधक जगत् को अपने वश में कर सकता है ॥१३४-१३५॥

अब वशीकरण आदि अन्य प्रयोग कहते हैं -
स्त्री या पुरुष जिसे वश में करना हो उसकी राई की प्रतिमा बना कर पुरुष के दाहिने पैर के मस्तक तक, स्त्री के बायें पैर से मष्टक तक, तलवार से १०८ टुकडे कर, प्रतिदिन विधिवत् राई की लकडी से प्रज्वलित अग्नि में निरन्तर एक सप्ताह पर्यन्त इस मन्त्र से हवन करे, तो शत्रु भी जीवन भर स्वयं साधक का दास बन जाता है । स्त्री को वश में करने के लिए साध्य में (देवदत्तस्य उपविष्टस्य के स्थान पर देवदत्तायाः उपविष्टायाः इसी प्रकार देवदत्तायाः सुदामा आदि) शब्दों को ऊह कर उच्चारण करना चाहिए ॥१३६-१३८॥

सरसों का तेल तथा निम्ब पत्र मिला कर राई से शत्रु का नाम लगा कर मूलमन्त्र से होम करने से शत्रु को बुखार आ जाता है ॥१३८-१३९॥

इसी प्रकार नमक मिला कर राई का होम करने से शत्रु का शरीर फटने लगता है । आक के दूध में राई को मिश्रित कर होम करने से शत्रु अन्धा हो जाता है ॥१३९-१४०॥

पलाश की लकडी से प्रज्वलित अग्नि में एक सप्ताह तक घी मिश्रित राई का १०८ बार होम करने से साधक ब्राह्मण को, गुडमिश्रित राई का होम करने से क्षत्रिय को, दधिमिश्रित राई के होम से वैश्य को तथा नमक मिली राई के होम से शूद्र को वश में कर लेता है । मधु सहित राई की समिधाओं का होम करने से व्यक्ति को जमीन में गडा हुआ खजाना प्राप्त होता है ॥१४०-१४२॥

जलपूर्ण कलश में राई के पत्ते डाल कर उस पर आसुरी देवी का आवाहन एवं पूजन कर साधक मूलमन्त्र से उसे १०० बार अभिमन्त्रित करे । फिर उस जल से साध्य व्यक्ति का अभिषेक करे तो साध्य की दरिद्रता, आपत्ति, रोग एवं उपद्रव उसे छोडकर दूर भाग जाते है ॥१४३-१४४॥

राई का फूल, प्रियंगु, नागकेशर, मैनसिल एवं तगार इन सबको पीसकर मूलमन्त्र से १०८ बार अभिमन्त्रित करे । फिर उस चन्दन को साध्य व्यक्ति के मस्तक पर लगा दे तो साधक उसे अपने वश में कर लेता है ॥१४५-१४६॥

नीम की लकडी ल्से प्रज्वलित अग्नि में एक सप्ताह तक दक्षिणाभिमुख सरसोम मिश्रित राई की प्रतिदिन १०० आहुतियाँ देकर साधक अपने शत्रुओं को यमलोक का अथिथि बना देता है ॥१४६-१४७॥

यदि इस आसुरी विद्या की विधिवत् उपासना कर ली जाय तो क्रुद्ध राजा समस्त शत्रु किम बहुना क्रुद्ध काल भी उसका कुछ नहीं बिगाड सकता है ॥१४८॥




133 से 148 तक जो कुछ शब्द है उसका वर्णन हमारे प्राचीन ऋषियों ने किया हुआ है और उनको इस अद्वितीय ज्ञान को जानकारों ने मंत्रमहोदधी नामक किताब में आबद्ध किया हुआ है । विश्वास और धैर्य से साधना संपन्न कर तो निसंदेह आपको लाभ प्राप्त हो सकता है ।



आदेश.........

21 Aug 2017

वीर-वैताल शाबर मंत्र साधना



अदृश्य शक्ति का प्रवाह क्या आपने कभी विचार किया है कि ब्रह्माण्ड में कितनी अृदश्य शक्तियों का प्रवाह हो रहा है? कई शक्तियां आपको दिखाई नहीं देती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि शक्तियां होती ही नहीं है। वैताल शिव के प्रमुख गण है, जिन्होंने दक्ष राज के यज्ञ का विंध्वस कर शिव सत्ता स्थापित की हर व्यक्ति वैताल साधना सम्पन्न कर अपने चारों और एक सुरक्षा चक्र स्थापित कर सकता है। वैताल साधना ऐसी ही अद्वितीय तंत्र साधना है जिसके पूर्ण होने पर वैताल हर समय सुरक्षा प्रहरी के रुप में साधक के साथ रहता है।
वैताल भगवान शिव का ही अंश स्वरूप हैं, शिव के गणों में वैताल नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अपनी दैवीय शक्तियों के कारण प्राचीन काल से ही भगवान शिव के विशिष्ट गण वैताल की साधना का प्रचलन रहा है।
इतिहास साक्षी है, कि सांदीपन आश्रम में भगवान श्री कृष्ण ने भी वैताल सिद्धि प्रयोग सम्पन्न किया था, जिसके फलस्वरूप वे महाभारत में अजेय बन सके, और जीवन में अद्वितीय सिद्ध हो सके, हजारों बाणों के बीच भी वे सुरक्षित रह सके। विक्रमादित्य ने भी वैताल सिद्धि प्रयोग कर अपने जीवन के कई प्रश्नों को सुलझा लिया था।

आगे चलकर गुरु गोरखनाथ और मछिन्दरनाथ तो वैताल साधना के सिद्धतम आचार्य बने और उन्होंने वैताल साधना द्वारा उन्होंने अपने जीवन में साधनात्मक उपलब्धियों को सहज ही प्राप्त कर लिया। महान् तंत्र वेत्ता और गोरख तंत्र के आदि गुरु गोरखनाथ प्रणीत वैताल साधना, इस साधना को आज भी गोरख पंथ प्रमुख रूप से सम्पादित करता है।



वैताल उत्पत्ति

एक बार राजा दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उस आयोजन में भगवान शिव को उचित मान-सम्मान नहीं दिया गया, इस कारण उनकी पत्नी सती जो राजा दक्ष की पुत्री थीं, व्यथित हो गईं और यज्ञ कुण्ड में कूदकर अपने प्राण त्याग दिये। इस कारण भगवान शिव अत्यन्त क्रोधित हुए, उनके क्रोध से तीनों लोक थर्राने लगे, पेड़ों से पत्ते झड़ गये, चारों तरफ बिजलियां कड़कने लगीं और समुद्र में तूफान सा आ गया।

उसी क्रोध के आवेश में भगवान शिव ने अपनी जटा की एक लट को तोड़कर दक्ष के यज्ञ में होम कर दी, फलस्वरूप एक अत्यन्त तेजस्वी पराक्रमी बलवान और साहसी वीर की उत्पत्ति हुई जिसे ‘वैताल’ शब्द से संबोधित किया गया।
यज्ञ में से वैताल को प्रकट होते देख सारे देवता और दानव थर थर कांपने लगे, उसकी ज्वालाओं के सामने सारे देवता लोग झुलसने लगे और ऐसा लगने लगा कि यह पराक्रमी यदि चाहे तो पूरे भूमण्डल को एक हाथ से उठा कर समुद्र में फेंक सकता है।

भगवान शिव की शक्ति से उत्पन्न वैताल को भगवान शिव ने स्वयं आज्ञा दी की – जो साधक तुम्हारी साधना कर तुम्हें प्रत्यक्ष प्रकट करें, उसके सामने शांत स्वरूप में उपस्थित होना और जीवन भर उसकी छाया की तरह रक्षा करना, …यही नहीं, अपितु वह जीवन में तुम्हें जो भी आज्ञा दे, जिस प्रकार की भी आज्ञा दे उस आज्ञा का पालन करना ही तुम्हारा कर्त्तव्य होगा।



गोरक्ष संहिता के अनुसार वैताल साधना के निम्न छह लाभ हैं –

1. वैताल साधना से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, यह अत्यन्त सौम्य और सरल साधना है। जब वैताल साधना सिद्धि होती है, तो मनुष्य रूप में सरल प्रकृति और शांत रूप में वैताल प्रकट होता है, और जीवन भर दास की तरह साधक के कार्य सम्पन्न करता है।

2. वैताल सिद्धि होने पर वह छाया की तरह अदृश्य रूप से साधक के साथ बना रहता है, और प्रतिपल प्रतिक्षण उसकी रक्षा करता है। प्रकृति, अस्त्र शस्त्र या मनुष्य उसका कुछ भी अहित नहीं कर सकते, किसी भी प्रकार से उसके जीवन में न तो दुर्घटना हो सकती है और न उसकी अकाल मृत्यु ही संभव है।

3. ऐसे साधक के जीवन में शत्रुओं का नामो निशान नहीं रहता, वह कुछ ही क्षणों में अपने शत्रुओं को परास्त करने का साहस रखता है, और उसका जीवन निष्कंटक और निर्भय होता है, लोहे की सीखंचें या कठिन दीवारें भी उसका कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकतीं।

4. वैताल भविष्य सिद्धि सम्पन्न होता है, अतः अपने जीवन या किसी के भी जीवन के भविष्य से सम्बन्धित जो भी प्रश्न पूछा जाता है, उसका तत्काल उत्तर प्रामाणिक रूप से मिल जाता है, ऐसा व्यक्ति सही अर्थों में भविष्य दृष्टा बन जाता है।

5. जो साधक वैताल को सिद्ध कर लेता है, वह वैताल के कन्धों पर बैठ कर अदृश्य हो सकता है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर कुछ ही क्षणों में जा सकता है और वापिस आ सकता है, उसके लिए पहाड़, नदियां या समुद्र बाधक नहीं बनते।
ऐसा साधक कठिन से कठिन कार्य को वैताल के माध्यम से सम्पन्न करा लेता है, और चाहे कोई व्यक्ति कितनी ही दूरी पर हो, उसे पलंग सहित उठा कर अपने यहां बुलवा सकता है, और वापिस लौटा सकता है, उसके द्वारा गोपनीय से गोपनीय सामग्री प्राप्त कर सकता है।

6. वैताल सिद्धि प्रयोग सफल होने पर साधक अजेय, साहसी, कर्मठ और अकेला ही हजार पुरुषों के समान कार्य करने वाला व्यक्ति बन जाता है।



वास्तव में वैताल साधना अत्यन्त सौम्य और सरल साधना है, जो भगवान शिव की साधना करता है वह वैताल साधना भी सम्पन्न कर सकता है। जिस प्रकार से भगवान शिव का सौम्य स्वरूप है, उसी प्रकार से वैताल का भी आकर्षक और सौम्य स्वरूप है। इस साधना को पुरुष या स्त्री सभी सम्पन्न कर सकते हैं।
यद्यपि यह तांत्रिक साधना है, परन्तु इसमें किसी प्रकार का दोष या वर्जना नहीं है। गायत्री उपासक या देव उपासक, किसी भी वर्ण का कोई भी व्यक्ति इस साधना को सम्पन्न कर अपने जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकता है। सबसे बड़ी बात यह है, कि इस साधना में भयभीत होने की बिल्कुल जरूरत नहीं है, घर में बैठकर के भी यह साधना सम्पन्न की जा सकती है। साधना सम्पन्न करने के बाद भी साधक के जीवन में किसी प्रकार अन्तर नहीं आता, अपितु उसमें साहस और चेहरे पर तेजस्विता आ जाती है, फलस्वरूप वह जीवन में स्वयं ही अपने अभावों, कष्टों और बाधाओं को दूर कर सकता है।

आज के युग में वैताल साधना अत्यन्त आवश्यक और महत्वपूर्ण हो गई है, दुर्भाग्य की बात यह है कि अभी तक इस साधना का प्रामाणिक ज्ञान बहुत ही कम लोगों को था, दूसरे साधक ‘वैताल’ शब्द से ही घबराते थे, परन्तु ऐसी कोई बात नहीं है। जिस प्रकार से साधक लक्ष्मी, विष्णु या शिव आदि की साधना सम्पन्न कर लेते हैं, ठीक उसी प्रकार के सहज भाव से वे वैताल साधना भी सम्पन्न कर सकते हैं।



साधना सामग्री

इस प्रयोग में न तो कोई पूजा और सिर्फ विशेष सामग्री की आवश्यकता होती है,नाथ संप्रदाय के अनुसार इस प्रयोग में केवल तीन उपकरणों की जरूरत होती है।


1. तांत्रोक्त वीर वैताल यंत्र (जिससे एक पत्ते वाले बेल वृक्ष की जड़ और एक पत्ते वाले पलाश के वृक्ष की जड़ होना ज़रूरी है,जो ताबीज में भरकर सिद्ध किया जाता है) 2. रुद्र मंत्र आवेशित तांत्रोक्त वैताल रुद्राक्ष माला और 3.रक्षा कवच (इस कवच में मसन्या उद का प्रयोग होना चाहिए ) ।



इसके अलावा साधक को अन्य किसी प्रकार की सामग्री जल पात्र या कुंकुम आदि की जरूरत नहीं होती, यह साधना रात्रि को सम्पन्न की जाती है, परन्तु जो साधक न भयभीत हों, और न विचलित हों, वे निश्चिन्त रूप से इस साधना को सम्पन्न कर सकते हैं।



साधना विधान:-

साधक रात्रि को दस बजे के बाद स्नान कर लें और स्नान करने के बाद अन्य किसी पात्र को छुए नहीं। पहले से ही धोकर सुखाई हुई काली धोती को पहन कर काले आसन पर दक्षिण की ओर मुंह कर घर के किसी कोने में या एकान्त स्थान में बैठ जाएं।

अपने सामने लकड़ी के एक बाजोट पर शिव परिवार चित्र/विग्रह/शिव यंत्र/शिवलिंग स्थापित कर लें और साथ ही अपने गुरु/गोरक्षनाथ का चित्र भी स्थापित कर दें। वैताल साधना में सफलता हेतु गुरु और शिव जी से आशीर्वाद अवश्य प्राप्त करें। इस हेतु सर्वप्रथम गुरु और शिव जी का  ध्यान करें –

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥


अब भगवान शिव जी का मन ही मन नीचे लिखे मंत्र से ध्यान करें-

ध्यायेन्नित्यंमहेशं रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम।
पद्मासीनं समंतात्स्तुतममरगणैव्र्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्ववंद्यं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम॥



एक ताँबे के पात्र या स्टील की थाली में काजल से एक गोला बनाएं और उस गोले में वैताल यंत्र को स्थापित कर दें। यंत्र स्थापन के पश्चात् हाथ जोड़कर वैताल का ध्यान करें।



ध्यान

धूम्र-वर्ण महा-कालं जटा-भारान्वितं यजेत्
त्रि-नेत्र शिव-रूपं च शक्ति-युक्तं निरामपं॥
दिगम्बरं घोर-रूपं नीलांछन-चय-प्रभम्
निर्गुण च गुणाधरं काली-स्थानं पुनः पुनः॥



ध्यान के उपरान्त साधक वैताल सिद्धि माला से मंत्र की 3 माला मंत्र जप नित्य कम से कम 21 दिनों तक सम्पन्न करें। यह शाबर मंत्र छोटा होते हुए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है और शाबरी तंत्र में इस मंत्र की अत्यन्त प्रशंसा की हुई है।



शाबर वैताल मंत्र

॥ॐ नमो आदेश गुरुजी को,वैताल तेरी माया से जो चाहे वह होये,तालाब के वीर-वैताल यक्ष बनकर यक्षिणियों संग चले,शिव का भक्त माता का सेवक मेरा कह्यो कारज करे,इतना काम मेरा ना करो तो राजा युधिष्ठिर का गला सूखे,(यहां पर मैं आगे का मंत्र नही लिख रहा हु,क्योके मंत्र गोपनीय होने के कारण अधूरा रखना ही बेहतर है) ॥



मंत्र जप करते समय किसी प्रकार आलस्य नहीं लायें, शांत भाव से मंत्र जप करते रहें। यदि खिड़की, दरवाजे खड़खड़ाने लगे तो भी अपने स्थान से न उठें। मंत्र जप के पश्चात् बेसन के लड्डुओं का भोग यंत्र के सामने अर्पित कर दें।
वास्तव में ही यह अत्यन्त गोपनीय प्रयोग है, अतः यह प्रयोग सामान्य व्यक्ति को, निन्दा करने वाले को, तर्क करने वाले दुराचारी को नहीं देना चाहिए और न इसकी विधि समझानी चाहिए।

यह साधना संपन्न करने हेतु ईमेल के माध्यम से सम्पर्क करें- snpts1984@gmail.com और आपको साधना सामग्री हेतु भी जानकारी दिया जाएगा ।




आदेश............

17 Aug 2017

सूर्यग्रहण साधना



ग्रहण एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक घटना है जिसके दूरगामी दुष्प्रभाव होते हैं और अनिष्ट शक्तियां इनका लाभ उठातीं हैं ।
हम जहां रह रहे हैं यदि उस क्षेत्र में ग्रहण दिखार्इ दे रहा हो, तो सभी आध्यात्मिक सावधानियां रखना आवश्यक है । पूरे वर्ष नियमित साधना करने से ग्रहण के दुष्प्रभाव कम करने में सहायता प्राप्त होती है । साथ ही यदि कोई ग्रहण काल में तीव्र साधना करता है तो उसे इसका व्यक्तिगत सकारात्मक लाभ भी आध्यात्मिक दृष्टि से प्रगति के रूप में होता है ।
चंद्र की अपेक्षा सूर्य पृथ्वी पर जीवन के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है । सूर्य को सूक्ष्म अथवा स्थूल स्तर पर अवरुद्ध करने से पृथ्वी सूक्ष्म एवं अमूर्त रूप से अधिक संवेदनशील हो जाती है जिसके कारण वातावरण अनिष्ट शक्तियों के (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) लिए अधिक पोषक बन जाता है ।


ग्रहण काल में साधना करने से वातावरण के बढे हुए रज-तम एवं काली शक्ति के प्रभाव को निष्प्रभ किया जा सकता है । इसलिए यदि कोई व्यक्ति ग्रहण काल में तीव्र साधना करता है तो वह अवश्य ही काली शक्तियों के दुष्प्रभाव से बच सकता है । एक ग्रहण से होनेवाले दूसरे ग्रहण तक काली शक्तियों के दुष्प्रभाव से बचने हेतु नित्य साधना करना मूर्खता है,इसलिए ग्रहण काल मे दुष्प्रभाव से बचने हेतु साधना करे और पूर्ण लाभ उठाएं । आजकल कुछ लोगो ने दुष्प्रभाव को ग्रहो का खेल बना दिया है जिसके कारण बहोत सारे लोगो का पेट रत्न बेचने से भर रहा है परंतु हमे यहां कुछ तो समझना ही होगा के हम जीवन मे आध्यात्मिक/भौतिक प्रगति कैसे करेगे? क्युके आज के समय मे सामान्य जीवन जीना एक श्राप बन चुका है,जिसके पास धन ना हो वह हर जगह हार जाता है ।


आज मैं धन-धान्य से संबंधित साधना दे रहा हु,जिसे ग्रहण काल मे संपन्न करना प्रत्येक व्यक्ति के लिये आवश्यक है । जो लोग ग्रहण काल को मजाक में लेते है शायद वह दुख-संकट के समय मे भी हँसते हो परंतु जिन्हें दुख-दर्द-संकट का एहसास है वह लोग इस साधना से खुशिया प्राप्त कर सकते है ।
ग्रहण भारत में दृश्य नहीं होगा अतः इसका धार्मिक दृष्टिकोण से शुभाशुभ प्रभाव भी मान्य नहीं होगा। परंतु ज्योतिषीय दृष्टिकोण से इसका प्रभाव संपूर्ण विश्व पर पड़ेगा । ग्रहण चाहे दुनिया के किसी भी क्षेत्र में हो परंतु उसका असर सभी प्राणियों पर होता है,यह ग्रहण भारत मे दृश्य नही है तो कोई बात नही पर साधना सिद्धियों हेतु पूर्णतः एक अपेक्षाकृत योग है और इस अवसर का लाभ उठाना प्रत्येक साधक का कार्य है ।



चाणक्य ने तो स्पष्ट कहा है कि-

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं
पुत्राश्च दाराश्च सुहज्जनाश्च।
तमर्शवन्तं पुराश्रयन्ति अर्थो
हि लोके मनुषस्य बन्धुः॥

निर्धन हो जाने पर मनुष्य को पत्नी, पुत्र, मित्र, निकट सम्बन्धी, नौकर और हितैषी जन सभी छोड़कर चले जाते हैं और जब पुन: धन प्राप्त हो जाता है तो फिर से उसी के आश्रय में आ जाते हैं। शास्त्रों में भी ‘ धर्मार्थ काम मोक्षाणां पुरुषार्थ चतुष्टयम्’ कहकर मनुष्य की उन्नति के लिए चार प्रकार के पुरुषार्थ बतायें हैं, जिसमें सबसे पहला पुरुषार्थ धर्म, दूसरा अर्थ (लक्ष्मी प्राप्ति), तीसरा काम (सन्तान उत्पन्न करना) और चौथा मोक्ष प्राप्ति के लिए साधना आदि सम्पन्न करना है ।

दरिद्रता एवं दुःख को यदि जड़ से उखाड़ फेंकना हो, तो सूर्य ग्रहण मे कमला तंत्र वर्णित लक्ष्मी के मूल स्वरूप की ‘कमला साधना’ अवश्य सम्पन्न करें। इस साधना को जो भी साधक श्रेष्ठ मुहूर्त (सूर्य ग्रहण) में पूर्ण विधि-विधान से करता है, उसके जीवन की दरिद्रता समाप्त हो जाती है और उसका दुर्भाग्य, सौभाग्य में परिवर्तित हो जाता है।




साधना विधि-विधान:-


कमला तंत्र के अनुसार सूर्य ग्रहण से पूर्व साधक स्नान, ध्यान कर पीले वस्त्र धारण कर पीले आसन पर उत्तर दिशा की ओर मुख कर बैठ जाएं और अपने सामने एक बाजोट पर पीला वस्त्र बिछाकर उस पर लक्ष्मी चित्र स्थापित कर दें। लक्ष्मी जी के चित्र के समीप ही गुरु चित्र स्थापित कर, गुरु चित्र का पंचोपचार पूजन कर लें (जिनके गुरु ना हो वह शिव पूजन करे) । इसके पश्चात् दोनों हाथ जोड़कर नवग्रहों की शांति हेतु प्रार्थना करें ।


नवग्रह प्रार्थना –

ॐ ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च गुरुश्च शुक्रः शनि राहुकेतवः सर्वेग्रहाः शांतिकरा भवन्तु॥

नवग्रह प्रार्थना के पश्चात् एक थाली में नया पीला वस्त्र बिछाकर उसे बाजोट पर रख दें, कपड़े के ऊपर सिन्दूर से सोलह बिन्दियां लगावें। सबसे ऊपर चार फिर उनके नीचे चार-चार बिन्दियां चार पक्तियों में, इस प्रकार कुल 16 बिन्दियां लगा कर प्रत्येक बिन्दी पर एक-एक लौंग तथा एक-एक इलायची रख कर फिर इनका अष्टगंध से पूजन करें और हाथ जोड़कर निम्न ध्यान मंत्र का उच्चारण करें –


उद्यन्मार्तण्ड-कान्ति-विगलित
कवरीं कृष्ण वस्त्रवृतांगाम्।
दण्डं लिंगं कराब्जैर्वरमथ
भुवनं सन्दधतीं त्रिनेत्राम्॥

नाना रत्नैर्विभातां स्मित-मुख
-कमलां सेवितां देव-देव-सर्वै
र्भार्यां रा ज्ञीं नमो भूत स-रवि-कल
-तनुमाश्रये ईश्वरीं त्वाम्॥


जो साधक संस्कृत पढ़े लिखे नहीं हैं, उनको चिंता नहीं करनी चाहिए और धीरे-धीरे शब्द उच्चारण करते हुए यह ध्यान मंत्र पढ़ सकते हैं।



इसके बाद दोनों हाथों में पुष्प तथा अक्षत लेकर निम्न मंत्र से अपने घर में भगवती कमला (लक्ष्मी जी का रूप) का आह्वान करते हुए चित्र  पर पुष्प, अक्षत समर्पित करें ,अब दाहिने हाथ मे थोड़ा जल लेकर विनियोग मंत्र बोले और जल को जमीन पर छोड़ दे-


विनियोग:-

ॐ ब्रह्मा ॠषये नमः शिरसि। गायत्रीश्छन्दसे नमः मुखे,श्री जगन्मातृ महालक्ष्म्यै देवतायै नमः हृदि,श्रीं बीजाय नमः गुह्ये,सर्वेष्ट सिद्धये मम धनाप्तये ममाभीष्टप्राप्तये जपे विनियोगाय नमः।


इसके बाद साधक सामने शुद्ध घृत का दीपक जलाएं, उसका पूजन करें तत्पश्चात् सुगन्धित अगरबत्ती प्रज्वलित करें, ऐसा करने के बाद साधक चित्र पर कुंकुम समर्पित करें, पुष्प तथा पुष्प माला पहनाएं, अक्षत चढ़ावें तथा नैवेद्य का भोग लगावें, सामने ताम्बूल, फल और दक्षिणा समर्पित करें।


भगवती कमला के आह्वान और पूजन के पश्चात् इस साधना में ‘कवच’ पाठ का विधान है। इस दुर्लभ कवच का पांच बार पाठ करें, जो महत्वपूर्ण है, कवच पाठ से चित्र का साधक के प्राणों से सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, और साधना सम्पन्न करने पर साधक को ओज, तेज, बल, बुद्धि तथा वैभव प्राप्त होने लग जाता है। इस कवच का उच्चारण सनत्कुमार ने भगवती लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए किया था। कमला उपनिषद् में इस लघु कवच का अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रयोग है –



कमला कवच:-


ऐंकारी मस्तके पातु वाग्भवी सर्व सिद्धिदा।
ह्रीं पातु चक्षुषोर्मध्ये चक्षु युग्मे च शांकरी।

जिह्वायां मुख-वृत्ते च कर्णयोर्दन्तयोर्नसि।
ओष्ठाधरे दन्त पंक्तौ तालु मूले हनौ पुनः॥

पातु मां विष्णु वनिता लक्ष्मीः श्री विष्णु रूपिणी।
कर्ण-युग्मे भुज-द्वये-रतन-द्वन्द्वे च पार्वती॥

हृदये मणि-बन्धे च ग्रीवायां पार्श्वयोर्द्वयोः।
पृष्ठदेशे तथा गृह्ये वामे च दक्षिणे तथा॥

स्वधा तु-प्राण-शक्त्यां वा सीमन्ते मस्तके तथा।
सर्वांगे पातु कामेशी महादेवी समुन्नतिः॥

पुष्टिः पातु महा-माया उत्कृष्टिः सर्वदावतु।
ॠद्धिः पातु सदादेवी सर्वत्र शम्भु-वल्लभा॥

वाग्भवी सर्वदा पातु, पातु मां हर-गेहिनी।
रमा पातु महा-देवी, पातु माया स्वराट् स्वयं॥

सर्वांगे पातु मां लक्ष्मीर्विष्णु-माया सुरेश्वरी।
विजया पातु भवने जया पातु सदा मम॥

शिव-दूती सदा पातु सुन्दरी पातु सर्वदा।
भैरवी पातु सर्वत्र भैरुण्डा सर्वदावतु॥

पातु मां देव-देवी च लक्ष्मीः सर्व-समृद्धिदा।
इति ते कथितं दिव्यं कवचं सर्व-सिद्धये॥



वास्तव में ही यह कवच जो कि ऊपर स्पष्ट किया गया है अपने आप में महत्वपूर्ण है, यदि साधक नित्य इसके ग्यारह पाठ करता है, तो भी उसे जीवन में धन, वैभव, यश सम्मान प्राप्त होता रहता है। प्रयोग में इसके पांच पाठ करें। कमला कवच के पाठ के पश्चात् ‘ कमल गट्टा माला ’ या " स्फटिक माला " का कुंकुम, अक्षत, पुष्प इत्यादि से पूजन करें और पूजन के पश्चात् ‘ जप माला ’ से निम्न कमला मंत्र की 16 माला मंत्र जप करें।



कमला मंत्र

॥ ॐ ऐं ईं हृीं श्रीं क्लीं ह्सौः जगत्प्रसूत्यै नमः॥

Om aing ing hreeng shreeng kleeng hasoum jagatprasutyai namah


जब सोलह माला मंत्र जप हो जाय तब भगवती लक्ष्मी की विधि-विधान के साथ आरती सम्पन्न करें ।


ग्रहण के बाद भी साधक को 21 दिनों तक नित्य 1 माला जाप करते रहना चाहिए और साधना काल मे साधनात्मक नियमो का भी पालन करे । मैं कुछ  साधनात्मक नियम बता देता हूं जो जरूरी है,प्रथम नियम साधना नित्य एक ही समय पर करे,दूसरा नियम स्त्री को जब राजस्वाल हो तो उस समय उनके हाथों बना भोजन ना करे और उनका स्पर्श भी ना होने दे,तीसरा नियम साधना में ब्रम्हचैर्यत्व का पालन करे,आखरी नियम मास-मदिरा का त्याग कर । जिसने भी ये चार नियम समझलिये उसका जीवन साधना के क्षेत्र में अद्वितीय हो सकता है । इस साधना के बाद आपको जीवन मे किसी भी प्रकार की कोई भी कमी ना पड़े यही संकल्प मैं इस ग्रहण में करने वाला हूँ ताकि आपका जीवन अद्वितीय बन सके ।


ग्रहण का समय:-इस बार 21 अगस्त को सूर्य ग्रहण पड़ रहा है। भारतीय समय के मुताबिक यह ग्रहण रात में 9.15 मिनट से शुरु होगा और रात में 2.34 मिनट पर खत्म होगा। भारत में इस दौरान रात रहेगी तो यहां पर कहीं भी सूर्य ग्रहण दिखाई नहीं देगा परंतु साधको के लिये यह एक साधना सिद्धि हेतु महत्वपूर्ण समय माना जायेगा ।







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